अलग झारखण्ड राज्य के लिए हमारे पूर्वज नौजवानों ने आजाद भारत की सबसे बड़ी शहादत ‘खरसावाँ गोलीकांड’ में दी, जिसे आनेवाली हजारों पीढियां ससम्मान याद करती रहेगी। साथ ही जब भी कभी कोई गलत मंशा से झारखण्ड में कदम रखेगा, खरसावाँ गोलीकांड के शहीदों की राजनीतिक चेतना और समर्पण से अलग-अलग कालखंडों में प्रेरणा लेते हुए युवा चट्टान कि भांति खड़े हो जायेंगे ।
भारत के मानचित्र में उभरने वाली झारखण्ड की तस्वीर का अक्स शायद ऐसा न होता, गर 1 जनवरी 1948 को इन हजारों शहीदों ने खरसावाँ में अपनी शहादत न दी होती। खरसावाँ गोलीकांड की शहादत जहाँ झारखंडियों के लिए प्रेरणा का श्रोत है वहीँ राजनीतिक चेतना के दृष्टिकोण से ऐतिहासिक मिसाल है। ज्ञात हो कि यहाँ के आदिवासी-मूलवासी की अलग राज्य की मांग तब से कर रहे थे जब भारत आजाद नहीं हुआ था ।
खरसावाँ गोलीकांड के पीछे की मुख्य वजह खरसावाँ को उड़ीसा राज्य में विलय करने की मंशा रही। इस विलय प्रक्रिया की पूरी स्क्रिप्ट भारत के आजादी के साथ ही लिखी जानी शरू हुई। 20 नवम्बर, 1947, नई दिल्ली, वीपी मेनन के आवास पर इस सन्दर्भ में उड़ीसा के तत्कालीन प्रीमियर हरे किशन महताब और संबलपुर के तत्कालीन क्षेत्रीय आयुक्त की मौजूदगी में हुए बैठक में सरदार पटेल और वीपी मेनन ने खरसावाँ को उड़ीसा में विलय के पक्ष में सहमती जताई। 13 और 14 दिसम्बर, 1947 में सरदार पटेल कटक आ विलय प्रक्रिया पूरी की साथ ही सत्ता हस्तांतरण का दिन 1 जनवरी 1948 मुक़र्रर किया। हालांकि, भारत सरकार को बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि इसका विरोध इतना व्यापक होगा।
सरकारी आंकलन से परे, लगभग 50 हजार लोग विलय के विरोध में 1 जनवरी 1948 को खरसांवां साप्ताहिक हाट में जमा हुए। ऐसा माना जाता है कि, विरोध कर रहे लोगों द्वारा राजा महल में झंडा फहराने के प्रयास के क्रम में ओड़िसा मिलिटरी पूलिस ने रोटरगानों से फायरिंग की।ओड़िसा के ही तत्कालीन सरकार ने अपनी रिपोर्ट में माना कि 30 हज़ार आन्दोलनकारियों पर पुलिस ने फायरिंग की। साबुत के तौर पर अपने कंधे में गोली लिए साधू चरण बिरुआ 55 वर्षों तक जीवित रहे। इस गोलीकांड में हजारों लोगों के शहादत के कारण 1949 में खरसावाँ विलय को केंद्र सरकार द्वारा रद्द कर दिया गया।
अलबत्ता, आजाद भारत के जलियांवाला बाग़ से भी बड़े अपनों द्वारा किये गए नरसंहार पर किसी भी पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जलियांवाला बाग़ गोलीकाण्ड की नैतिक जिम्मेदारी इंग्लैंड की सरकार ने तो ली परन्तु अफ़सोस कि अबतक भारत सरकार और उड़ीसा सरकार ने इस नरसंहार की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली है।
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